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तसव्वुर में बसा गर्मियों का मौसम

sakhi फुरसत के पलों में जब कभी हमारा मन अतीत के फ्लैशबैक में जाता है तो वह बार-बार बचपन की ओर ही झांकता है। गर्मी की छुट्टियों का बचपन से कुछ ऐसा नाता है कि जब भी हम अपने बचपन के खुशनुमा पलों को याद करते हैं तो उसमें समर वेकेशंस के यादगार पलों का कोलाज सा दृश्य हमारी आंखों के आगे घूमने लगता है। दोस्तों के साथ की जाने वाली शरारतें, लूडो-कैरम और अंत्याक्षरी, बर्फ की ठंडी-ठंडी चुस्की..और न जाने ऐसी ही कितनी खूबसूरत यादें इस मौसम के साथ जुडी हैं।

 

वे भी क्या दिन थे

गर्मियों की छुट्टियों का नाम सुनते ही मन नॉस्टैल्जिक होने लगता है। ऐसे में यादों की उंगली थामे अतीत की गलियारों में बस यूं ही बेमतलब घूमना-टहलना बडा सुखद लगता है। जरा याद कीजिए अपने बचपन के दिनों को, आप पूरे साल कितनी बेसब्री से गर्मी की छुट्टियों का इंतजार करते थे। तब घरों में आज की तरह सुख-सुविधाएं नहीं थीं। फिर भी जिंदगी में एक अलग तरह का सुकून था। स्नेह और अपनत्व की ठंडी छांव चिलचिलाती धूप की तपिश को भी सुहाना बना देती थी।

 

गर्मियों की खुशनुमा सुबह को याद करते हुए बैंकिंग कंसल्टेंट आकाश सरावगी कहते हैं, हमें आज के बच्चों की तरह छुट्टियों में देर रात तक जागकर टीवी देखने, इंटरनेट पर चैटिंग करने और सुबह देर तक सोने की इजाजत नहीं थी। तब केवल दूरदर्शन ही होता था, जिस पर चित्रहार और रात नौ बजे वाला सीरियल (हमारे जमाने में नुक्कड आता था) देखकर हम सो जाते थे। हमें सुबह साढे पांच बजे ही उठा दिया जाता था और हम दादा जी के साथ मॉर्निग वॉक के लिए निकल पडते थे। तब पॉलीथीन बैग का जमाना नहीं था। इसलिए सैर पर जाते वक्त दादाजी अपने साथ कपडे का थैला ले जाते और लौटते वक्त ताजा-ताजा खीरा, ककडी और खरबूजे खरीदकर जरूर लाते। फिर मम्मी और दादी बडी तसल्ली से इन फलों को काटकर, हमें खिलातीं। सच वे भी क्या दिन थे!

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