एक विदेशी संस्थान द्वारा हाल ही में कराए गए सर्वेक्षण पर गौर करें तो इसके नतीजों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि व्यक्तियों की स्वाभाविक और चारित्रिक विशेषताओं को उनके चेहरे की आकृति को देखकर आसानी से भांपा जा सकता है. जैसे जिन व्यक्तियों का चेहरा बड़ा और चौड़ा है वे बेईमान होते हैं वहीं दूसरी ओर छोटे और पतले चेहरे वाले व्यक्ति ईमानदार और कोमल स्वभाव के होते हैं. विदेशों में कराए गए यह शोध भले ही मानवशास्त्रियों की मनुष्य को और अधिक जानने की जिज्ञासा के परिणाम हों, लेकिन इनकी स्थापनाओं की प्रासंगिकता हमेशा से ही एक विवादास्पद विषय रही है. जिसका मुख्य कारण यह है कि ऐसे शोध केवल सीमित और विशिष्ट क्षेत्र के लोगों को ही केन्द्र में रखकर किए जाते हैं. यह सर्वेक्षण एक निश्चित समूह के लोगों पर कुछ समय के लिए किए गए अध्ययन का परिणाम होते हैं. अन्य लोगों और उनकी जीवनशैली के बारे में इन शोधों का कोई खास महत्व नहीं होता.
एक और महत्वपूर्ण बात यह कि इन व्यर्थ और निरर्थक प्रयोगों और शोधों के लिए विदेशी संस्थान पैसे को मनचाहे ढंग से और बहुत अधिक मात्रा में व्यय करते हैं. कितने ही वैज्ञानिक इन शोधों को पूरा करने में अपना महत्वपूर्ण समय लगा देते हैं. हां, अगर यह शोध महत्वपूर्ण सामाजिक जरूरतों को ध्यान में रखकर कराए गए हों या इनके परिणामों का कोई ठोस आधार हो तो इस खर्च को उचित ठहराया जा सकता है. लेकिन जब इन परिणामों का आधार ही सीमित है और कुछ विशेष लोगों के अलावा इन शोधों के परिणाम अन्य लोगों पर उचित नहीं बैठते, इनकी स्थापनाएं किसी और पर लागू नहीं होतीं तो ऐसे में इन्हें पूरे समाज से जोड़कर देखा नहीं जा सकता. ऐसा प्रतीत होता है कि यह शोध उनके लिए विज्ञान नहीं बल्कि मनोरंजन का एक माध्यम है जो धीरे-धीरे विदेशियों का शौक बनता जा रहा है.
वहीं अगर हम भारत, जो कि विज्ञान के क्षेत्र में बहुत पहले ही अपने लिए एक विशिष्ट स्थान स्थापित कर चुका है, के संदर्भ में ऐसे शोध और सर्वेक्षणों की बात करें तो यहां भी मानवीय आकृति और लक्षणों के आधार पर मनुष्य को जानने और उनका विश्लेषण करने की जिज्ञासाओं से जुड़ा शास्त्र विद्यमान है, जिसे समुद्र शास्त्र या लक्षण शास्त्र के नाम से जाना जाता है. लेकिन विदेशी शोध और समुद्र शास्त्र में कोई समानता नही है, क्योंकि एक ओर जहां विदेशी संस्थान और वैज्ञानिक एक निर्धारित समय और विशेष व्यक्ति समूह पर ही शोध करने में सहज महसूस करते हैं, वही समुद्र शास्त्र और इसकी स्थापनाएं वर्षों के अध्ययन का परिणाम हैं जो सभी मनुष्यों पर समान रूप से आधारित और लागू होती हैं. विशिष्ट और विशेष जैसे शब्दों का इस विज्ञान से कोई लेना देना नहीं हैं. अपनी इन्हीं विशेषताओं के आधार पर समुद्र शास्त्र और उसकी स्थापनाओं पर प्रश्नचिन्ह लगाना संभव नहीं है.
एक और बात जिसका उल्लेख यहां जरूरी हो जाता है कि भले ही भारत आर्थिक दृष्टिकोण से अभी भी प्रगतिशील राष्ट्रों की सूची में शामिल हो लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भारत की प्रगति का सिलसिला बहुत पुराना और विशेष है. प्रारंभिक समय में ही भारतीय ऋषि विज्ञान की कई शाखाओं और सर्वमान्य नतीजों को स्थापित कर चुके हैं, जिनकी उपयोगिता और महत्ता आज भी कम नहीं हुई. समुद्र शास्त्र केवल शास्त्र ना होकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला विषय है जिसकी प्रासंगिकता इतने वर्षों बाद आज के वैज्ञानिक युग में भी कम नहीं हुई.
जबकि इसी क्रम में विदेशी शोधों की व्यर्थता और उनके पालन से होने वाले दुष्परिणाम काफी अनर्थकारी हो सकते हैं. इनका अत्याधिक पालन कई गंभीर परिणामों को सामने ला सकता है. चेहरे या शारीरिक लक्षणों के आधार पर मनुष्य की प्रवृत्ति के बारे में अनुमान लगाना तमाम संदेहों और समस्याओं को जन्म देने वाला सिद्ध हो सकता है. मनुष्यों में शक और अविश्वास की भावना हावी हो सकती है. ये एक प्रकार से सौहार्द और सामंजस्य को पूरी तरह से खत्म करने वाले सिद्ध होंगे.
एक जागरुक और समझदार समाज को यह जानना चाहिए कि कई विदेशी संस्थान ऐसे शोधों को अपनी लोकप्रियता और साख को भुनाने के लिए ही करवाते हैं. इनका समाज और उसके ऊपर पडने वाले प्रभावों से कोई संबंध नहीं होता. इसीलिए यह पूर्णत: हमारी समझ और परिपक्वता पर निर्भर करता है कि हम अपने मस्तिष्क पर ऐसे निरर्थक प्रयोगों के परिणामों और निष्कर्षों को हावी ना होने दें.
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