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पुरुष वाकई ये नहीं कर सकते

कई बार आपने किसी पुरुष को यह कहते सुना होगा कि दुनिया में ऐसा कोई काम नहीं है जो वे नहीं कर सकते. लेकिन कुछ ऐसा जरूर है जो वह नहीं कर सकते, वह चाहते भी होंगे लेकिन फिर भी ऐसा नहीं कर सकते.

अभी पिछले दिनों यह चर्चा जोरों पर थी कि अब घर-परिवार की जिम्मेदारी संभालने में पुरुष भी अपनी पत्नियों का पूरा साथ निभा रहे हैं. वह घर के छोटे-मोटे कामों के साथ-साथ बच्चों की देखभाल करने तक का जिम्मा उठा रहे हैं और वह भी पूरी तन्मयता के साथ. ऐसा समझा जा रहा था कि अब महिलाएं भी अपने कॅरियर पर पूरा ध्यान दे सकती हैं क्योंकि उनकी जिम्मेदारियां साझा करने के लिए उनके पति कमर कस चुके हैं लेकिन हालिया अध्ययन को देखने और समझने के बाद जो बात सामने आई है वह यह है कि पुरुष अभी भी अपने कॅरियर को ही प्राथमिकता देते हैं और उनके लिए इससे ज्यादा और कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं होता. घरेलू कामों में पत्नी की सहायता करना तो दूर अपने काम और कॅरियर के आगे वह अपने बच्चों को समय देना तक जरूरी नहीं समझते.

मेन कांट डू इट (Men Can`t do it) के लेखक गिडन बरोस (Gideon Burrows) का कहना है कि पिता द्वारा अपने बच्चों के लिए मां की भूमिका ग्रहण करना मात्र एक भ्रम है क्योंकि असल में ऐसे हालात ना आज हैं और भविष्य में भी ऐसी परिस्थितियां नहीं देखी जाने वाली. वे दंपत्ति जो अभी-अभी माता-पिता बने हैं उनके लिए यह किताब एक वेक-अप कॉल कही जा सकती है, क्योंकि इसमें बच्चों की परवरिश में माता-पिता की समान भागीदारी को चिह्नित करते हुए यह दर्शाया गया है कि जॉब का फ्लेक्जिबल ना होना, कार्यस्थल पर साथियों का व्यवहार, महिलाओं के प्रति सामाजिक मानसिकता और अन्य सामाजिक मान्यताएं किस तरह पिता का अपने बच्चे की परवरिश की तरफ रुझान पैदा ही नहीं होने देता. लेकिन बरोस की मानें तो पुरुषों की इस मानसिकता का कारण कुछ और नहीं बल्कि वह स्वयं हैं क्योंकि असल में वे खुद ही बच्चों की देखभाल करना नहीं चाहते.



पुरुषों को यह कुछ समय तक अच्छा लगता है लेकिन फिर उन्हें यह सब बोरिंग, कठिन, कॅरियर में रुकावट और परेशानी भरा काम लगने लगता है. पुरुषों के लिए यह वित्तीय क्षेत्र और कॅरियर में त्याग जैसा लगने लगता है जो उन्हें बिल्कुल मंजूर नहीं होता.



गिडन की बुक मेन कांट डू इट में यह लिखा है कि पुरुष कहते तो हैं कि वह अपने बच्चे के साथ समय बिताना चाहते हैं लेकिन वह इस क्षेत्र में कोई कड़ा कदम नहीं उठाते.



इस किताब में यह भी उल्लिखित है हर तीन में से एक पुरुष अपने बच्चे के लिए ऑफिस से छुट्टी नहीं लेते और ना ही बच्चों को नहलाने में पत्नी की मदद करते हैं. इसके अलावा वीकेंड या फिर ऑफिस की छुट्टी वाले दिन भी वह अपने बच्चों के साथ कम समय बिताते हैं जबकि उनकी पत्नी पूरा दिन बच्चों के ही साथ बिता देती हैं.



किताब की इन पंक्तियों के अलावा उपरोक्त अध्ययन को अगर भारतीय परिदृश्य के अनुसार देखा जाए तो भी यही सामने आता है कि भारतीय पुरुष अपने बच्चों के पालन पोषण में समय बिताना पसंद नहीं करते. इसके पीछे विभिन्न कारण विद्यमान है, उनका काम, व्यस्त दिनचर्या आदि लेकिन अगर इसमें सबसे बड़ी भूमिका कोई निभाता है तो वह है भारतीय परंपरागत समाज जो एक पिता को अपने बच्चे से दूर रखता है. हमारी मानसिकता यही बन गई है कि बच्चे की जिम्मेदारियां उठाना सिर्फ मां का फर्ज है जबकि पिता सिर्फ उन जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए धन देता है. मां ही बच्चों को नहलाती है, उन्हें तैयार करती है, उनका सारा काम करती है और पिता घर से बाहर जाकर काम करता है. लेकिन वहीं अगर कोई पिता अपने बच्चों के लिए मां का काम करे तो उसे सामाजिक अवहेलना का सामना करना पड़ता है. अब इसे तथाकथित पौरुषत्व कह लें या फिर सामाजिक मानसिकता लेकिन माता-पिता की जिम्मेदारियों के बीच जो बंटवारा हुआ है वह कुछ उनकी मर्जी से तो कुछ सामाजिक बंधनों का ही परिणाम है.




Tags: paternity, paternity care, paternity and child care, father and child relation parents and child, पिता और बच्चे, बच्चों का ध्यान, माता पिता और बच्चों का रिलेशनशिप



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